नागपुर. टिकट विंडो पर लंबी लाइन, डंडा फटकारते सिपाही, सुपरहिट बजते गानों पर सीटियां बजाते दर्शक, फर्स्ट डे फर्स्ट शो देखने के लिए मारामारी और सिल्वर, गोल्डन व प्लेटिनम जुबली मनाती फिल्में, कभी आरेंज सिटी के सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों में कुछ ऐसा ही नजारा दिखता था. लेकिन लोगों का मनोरंजन करने वाले ये सिनेमाघर एक के बाद एक बंद होते जा रहे हैं. सुदामा, पंचशील, जानकी, लक्ष्मी, लिबर्टी, अलंकार टाकीज को छोड़ दिया जाये तो शहर की रीजेंट, रीगल, अमरदीप, नरसिंह, नटराज और श्याम टाकीज बंद चुकी हैं. बंद पड़ती टाकीज में अब एक नाम स्मृति का भी जुड़ जाएगा.
आज शहर में खुलते बड़े-बड़े मॉल और टाइमपास के माध्यम ने लोगों को बांट दिया है. पहले जहां लोगों के पास मनोरंजन का बस एक ही साधन सिनेमाघर हुआ करते थे, जिसके चलते सिनेमाघरों का व्यवसाय भी अच्छा चलता था और सभी शो हाउसफुल जाते थे.
आज जिन सिनेमाघरों ने मल्टीप्लेक्स के मुकाबले अपने आप को अपडेट कर लिया वह दौड़ में शामिल है और जो आधुनिकता के दौर में पिछड़ गये, वह बंद होते चले जा रहे हैं.
युवाओं में बढ़ा मॉल कल्चर का क्रेज
जानकारों के अनुसार आधुनिक दौर में मल्टीप्लेक्स का जमाना है जहां पर एक ही जगह पर 4 या इससे अधिक फिल्में देखने की सुविधा है. आधुनिक सुख-सुविधा से लेस मल्टीप्लेक्स के प्रति लोगों का रुझान ज्यादा हो गया है.
खासकर युवाओं का इसके प्रति क्रेज बढ़ गया है. ऐसे में सिंगल स्क्रीन वाले सिनेमा हाल आउटडेटेड हो गए हैं. घाटे के बढ़ते बोझ और लम्बे समय तक चलने वाली सुपरहिट फिल्मों के अभाव के कारण ऐसे अधिकांश सिनेमाघर अपने सुनहरे अतीत को याद करते हुए बंद हो गये हैं.
मल्टीप्लेक्स और मॉल कल्चर आने से सिनेमा हॉल की स्थिति दिन व दिन दयनीय होती जा रही है. सुविधाओं के अभाव के कारण दर्शकों की संख्या में लगातार कमी आ रही है. अब तो स्थिति यह हो गई है कि 1000 क्षमता वाले सिनेमा हॉल में मात्र कुछ दर्जन लोग ही पहुंच पाते हैं.
दमदार और हिट फिल्म रही, तो फिल्म 2 सप्ताह चल जाये, वही बहुत हो जाता है. यदि फ्लाप रही, तो इतने बड़े सिनेमाघरों का मेंटेनेंस और खर्चा निकालना भी मुश्किल हो जाता है. ऐसे में सिनेमाघर के संचालक कब तक घाटा सहेंगे, जिसके चलते यह बंद होते जा रहे हैं.
आज दर्शक शॉपिंग के साथ-साथ मूवी देखने की सुविधा चाहता है, जो कि उसे मल्टीप्लेक्स में मिलती है. इसके चलते ग्राहक डिवाइड होते जा रहे हैं. कुछ संचालकों के अनुसार सिनेमा हॉल चलाना अब जोखिम भरा काम है क्योंकि इसमें खर्च बढ़ गए हैं, आमदनी कम हो गई है.
सिनेमा हॉलों में पंखे व कूलर थे लेकिन मल्टीप्लेक्स पूरी तरह वातानुकूलित हैं और आधुनिक तौर तरीके से बने हैं जहां हर कोई जाना पसंद करता है. आज सिनेमाघरों में अच्छी फिल्म लगी, तो ही भीड़ नजर आती है, नहीं तो टिकट बुकिंग काउंटर पर कुछ लोग ही दिखते हैं.
रोजगार के साधन भी होते थे उपलब्ध
देखा जाये तो सिंगल स्क्रीन वाले सिनेमाघर लोगों के मनोरंजन के साथ-साथ रोजगार के साधन भी उपलब्ध कराते थे.सिनेमाघरों के इर्द गिर्द दर्जनों ठेला खोमचा वालों के परिवार का भरण पोषण होता था. सिंगल स्क्रीन में कोई अपने परिवार के साथ तो युवा वर्ग अपने हमउम्र के साथ उत्साह से फिल्म देखने जाता था. अब तो फिल्म रिलीज होते ही केबल पर दिखाई जा रही है या लोग मल्टीस्क्रीन जाना आज के समय ज्यादा पसंद कर रहे हैं. इसी का परिणाम सिंगल स्क्रीन वाले सिनेमाघरों पर पड़ा है.
जानकी टाकीज के संचालक आलोक तिवारी बताते हैं कि मॉल के साथ मल्टीप्लेक्स कल्चर आने से दर्शकों का वर्ग बंट गया है. पहले के मुकाबो अब मल्टीप्लेक्स के साथ-साथ मनोरंजन के साधन बहुत अधिक बढ़ गये हैं. ऐसा नहीं है कि सिंगल स्क्रीन से दर्शकों का मन उठ गया है, अभी भी बहुत से दर्शक सिंगल स्क्रीन का ही रुख करते हैं.
बस इतना है कि जिन टाकीजों के संचालकों ने दर्शकों की पसंद को देखते हुए अपने आप को आधुनिक दौर के साथ अपडेट कर लिया, वे सिंगल स्क्रीन आज भी चल रहे हैं. सिनेमाघरों का पूरा व्यवसाय फिल्मों के ऊपर रहता है.
अच्छी फिल्में रही, तो अच्छा खासा व्यवसाय होता है. रही बात कुछ टाकीजें तो लीज का समय पूरा होने के कारण बंद हुई हैं. पहले के मुकाबले अब फिल्म प्रोजेक्शन भी पूरी तरह बदल गया है.