Published On : Sat, Nov 24th, 2018

..पीड़ा प्रणब दा की ही नहीं,पूरे देश की!

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‘वसुधैव कुटुंबकम् ‘के गौरवशाली आदर्श को अंगीकार कर सम्पूर्ण विश्व के लिए अनुकरणीय बनने वाला भारत अगर धार्मिक व साम्प्रदायिक असहिष्णुता के खतरनाक दौर से गुजरता दिखे तो पीड़ा पैदा होना स्वाभाविक है।

भारत के पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने ऐसी स्थिति पर पीड़ा व्यक्त करते हुए टिप्पणी की है कि “भारत आज एक कठिन दौर से गुजर रहा है ।चारों ओर असहिष्णुता और गुस्से का वातावरण दृष्टिगोचर है ।नागरिक अधिकारों का हनन हो रहा है ।”

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प्रणब दा गलत नहीं हैं ।आज का वर्तमान सच,कड़वा सच,यही है ।धर्म-जाति-सम्प्रदाय के नाम पर आज खून-खराबे को तैयार लोग देखे जा सकते हैं ।पूरे देश में गुस्सा और भय का वातावरण है ।जान लेने-देने की बातें हो रही हैं ।पीड़ा तब गहरी हो जाती है,जब देखता हूँ कि ये सब राष्ट्रहित में किसी महान लक्ष्य की प्राप्ति के लिए नहीं,बल्कि घोर भ्रमाधारित,संकुचित मानसिकता के साथ ,समाज विभाजन के खतरनाक उद्देश्य प्राप्ति के लिए हो रहा है ।

ऐसा क्यों हो रहा है और कौन दोषी हैं इसके लिए?इस स्वाभाविक प्रश्न का उत्तर कठिन नहीं,सरल है ।

ऐसा हो रहा है,बल्कि किया जा रहा है स्वार्थ आधारित राजनीतिक स्वार्थ-पूर्ति के लिए!

और,दोषी हैं पवित्र-पत्रकारिता के डोर धारक मीडिया घराने,पत्रकारिता संस्थान,पत्रकार और उनके कप्तान संपादक!

समाज में व्याप्त हर रोगों के लिए राजनीतिकों को दोषी ठहराने की प्रवृत्ति के प्रतिकूल मेरी इस टिप्पणी पर कुछ भौहें तनेंगी।विरोध के स्वर भी उठ सकते हैं ।लेकिन,सच यही है ।इसे स्वीकार कर ही सही निदान ढूँढे जा सकते हैं ।इस निष्कर्ष के प्रतिरोध से रोग का प्रसार और बढ़ेगा ।
लोकतंत्र में सत्ता-संचालन निर्वाचित जन- प्रतिनिधियों के हाथों में होता है ।स्वीकृत संविधान ,कानून के अंतर्गत जनहित में कर्तव्य-निर्वाह की उनसे अपेक्षा की जाती है।आवश्यकतानुसार,संसद को कानून बनाने का अधिकार प्राप्त है।और,इनकी समीक्षा का अधिकार न्यायपालिका को प्राप्त है।कार्यपालिका क्रियान्वयन एजेन्सी का काम करती है ।

लेकिन,ध्यान रहे कि विधायिका,कार्यपालिका और न्यायपालिका के क्रिया-कलापों पर निगरानी के लिए “वॉच डॉग “की भूमिका में आजाद प्रेस अर्थात् मीडिया मौजूद है ।इसके प्रतिनिधि के रूप में हमारा धर्म है कि हम उनके हर कदम पर नज़र रखें,उन्हें आईना दिखाएं।आवश्यकतानुसार भौंकना भी हमारा कर्तव्य है ।बावजूद इसके अगर अगले की नींद नहीं टूटती है,तो हम उन्हें काट भी सकते हैं, और यह कृत्य कर्तव्य-निर्वाह ही माना जायेगा ।

खेद है कि आज अधिकांश पत्रकार,संपादक,मीडिया संचालक इस पवित्र कर्तव्य,राष्ट्रीय कर्तव्य, से विमुख,तुच्छ निज स्वार्थ-साधक बन बैठे हैं ।समाज,राष्ट्र-संरक्षक की भूमिका के उलट समाज,राष्ट्र-अहितकारी भूमिका को अंजाम देने लगे हैं ।

देश में विद्यमान असहिष्णुता और भय का मुख्य कारण यही है ।

संवैधानिक संस्थाओं का मान-मर्दन,न्यायपालिका की अवमानना के खतरनाक प्रयास हमारी ऐसी गैर-जिम्मेदराना हरकतों की ही उत्पत्ति हैं ।

अभी भी बहुत विलंब नहीं हुआ है ।ध्यान रहे,मीडिया की अक्षुणता में ही लोकतंत्र की अक्षुणता निहित है ।चेत जाएं हम।देश की अपेक्षापूर्ण निगाहें हम पर टिकी हैं ।देश रहेगा,तो हम रहेंगे ।देश का लोकतंत्र बचेगा,तो हम बचेंगे।अपेक्षा कि व्यापक राष्ट्रहित में,ईमानदारी से निडरता-निष्पक्षता पूर्वक अपना कर्तव्य-निर्वाह करें!

अरे,अपनी व्यक्तिगत या निजी ऐसी भी क्या जरुरत कि महान देश की जरूरतों की बलि चढ़ा दें!

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