सेवा कब मेवा में तब्दील हुई, जनता को पता ही नही चला
देश की सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की हालत किसी से छुपी नहीं है। स्वास्थ्य सेवा राज्यों का विषय होने का हवाला देते हुए केन्द्र सरकार अपना पल्ला झाड़ देता है। “नेशनल हेल्थ प्रोफाइल” के मुताबिक भारत अपने स्वास्थ्य क्षेत्र पर जीडीपी का महज 1.02 फिसदी खर्च करता है जोकि श्रीलंका, भूटान और नेपाल जैसे गरीब देशों की तुलना में भी कम है। “ग्लोबल बर्डेन ऑफ डिसीज स्टडी-2021” के अनुसार स्वस्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता और उपलब्धता में भारत 180 देशों में 145 वी रैंकिंग पर है। यह भयावह स्थिति है। भारतीय संविधान के “अनुच्छेद-21” देश के प्रत्येक नागरिक को जीने का अधिकार देता है और जीने के लिए “स्वास्थ का अधिकार’’ प्रत्येक नागरिक का मैलिक अधिकार है।
दुनिया में कोरोना महामारी ने 2019 में दस्तक दी। भारत में इसका प्रवेश 2020 के प्रारंभ में हुआ। इस वर्ष को कोरोना महामारी की वजह से हमेशा याद रखा जायेगा। इस महामारी के बारे में सरकार के पास न तो पूरी जानकारी थी और न ही वह इसके लिए तैयार थी। वह केवल पश्चिमी देशों के नक्श-ए-कदम पर चलने को मजबूर थी। जानकारी व कोई पूर्व शोध न होने के कारण भारतीय सरकार कोई भी ठोस निर्णय लेने में असमर्थ थी।
केन्द्र सरकार ने संपूर्ण देश में लॉकडाऊन लगाने की घोषणा कर दी। सारा देश घरों में कैद हो कर रह गया। प्रवासी मजदूरों की त्रासदी को भी हमने टी.वी. चैनलों, अखबारों, सोशल मिडिया के माध्यम से देखा। हम ने ऑक्सीजन के आभाव में सड़कों पर लोगो को मरते देखा, तो दूसरी ओर शमशान में शव दहन के लिए कतरें भी देखी, परिजनों द्वारा मुखाग्नि देने से मना करने वालो को भी देखा। सरकारों द्वारा शवों को बिना कफन के नदी किनारे रेत में दफन के मंजर को देखा और उन लाशों को कुत्तों द्वारा नोचते देखा ये मंजर हम ताउम्र नहीं भुला पाएंगे।
देश के बहुत सारे छोटे-बड़े अस्पतालों की अच्छी बुरी हर तरह की सच्चाई देश के सामने आई। एक ओर इस भयावह दौर में कुछ अस्पतालों के प्रबंधन की अच्छाई की पहचान करवाई, वहीं बहुत सारे अस्पतालों के प्रबंधन का भयावह चेहरा भी जनता के सामने उजागर हुआ। जिन्होंने आपदाकाल में चिकित्सा व्यवस्था को मानव सेवा की जगह मेवा खाने का जरिया मान नोट छापने की मशीन बना लिया था। लोभ-लालच ने बहुत सारे निजी अस्पताल संगठित अपराध करने का सबसे बड़ा व सुरक्षित अड्डा बन गये थे। हालांकि यह भी कटु सत्य है कि इस दौरान चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े अधिकांश लोगों ने अपनी जान की परवाह ना करके कठिन परिस्थितियों में भी लगातार मरीजों की जान बचाई।
देश में महामारी संक्रमण अपने उफान पर पहुंच गया। रोज लाखों देशवासी संक्रमित हो रहे थे। सरकारी अस्पतालों की दयनीय हालत के कारण जनता को निजी अस्पतालों का रुख करना पड़ा। देश में टेस्टिंग किट / दवाई / इंजेक्शन / प्राणवायु Oxygen / वेंटिलेटर / रुई / पीपीई किट / सेनेटाइजर व बेड की कमी हो गई थी। बस यहां से हजारों अस्पतालों व दवा कंपनियों ने आपदा में अवसर तलाशने का खेल शुरू किया। इस समय बहुत सारे अस्पतालों ने इलाज के नाम पर जमकर लूट करते हुए लाखों रुपये का भारी-भरकम बिल वसूलना शुरू किया। उनका यह कृत्य इंसान की मजबूरी का फायदा उठाकर इंसानियत को बेहद शर्मसार करने वाला दंडनीय जघन्य अपराध है। जिन्हें 1 रुपये लीज पर जमीन मिली है वे भी इस लूट में शामिल रहे।
जो किसी काम का नहीं उसमें भी मरीजों की लूट :
कोरोनाकाल में रेमडिसिवर इंजेक्शन के लिये मारामारी मची रही। इसकी जमकर कालाबाजारी हुई। रुपया 2000 का इंजेक्शन 30000 तक में बेचा गया। कई अस्पतालों के कर्मचारियों भी इसमें शामिल रहे। जबकि विश्व स्वास्थ संघटन ने कह दिया था कि इसके इलाज में प्रभावी होने के सबूत नहीं है। हालांकि बाद में इन पर कार्रवाई हुई। अदालतों में मामला चला और ऐसे कई कालाबाजारियों को सजा भी हुई, लेकिन तब तक कई मरीज इसके अभाव में जान गवां चुके थे।
पैथ लैबों की भी बल्लं-बल्ले :
करोना जाँच के नाम पर निजी पॅथोलॉजी लैबों ने भी जमकर मुनाफोरी की। सामान्य रूप से 200 रुपये की किट से RT-PCR टेस्ट करने वाली लैबों ने इसके लिये मरीजों से 3000 रुपये तक वसुल किये। कुछ समाज सेवकों द्वारा इस मामले को उच्चतम न्यायालय के समक्ष उठाया गया। जिसके बाद राज्य सरकारे हरकत में आई और अलग-अलग राज्य ने दरें निर्धारित की।
सब सरकार के संज्ञान में :
ऐसा नहीं है कि इन सारी बातों से सरकारें अनजान थी और उन्होंने इसके लिये कदम नहीं उठाए। सरकारों द्वारा समय-समय पर दिशा-निर्देश जारी किये गये पर धरातल पर उनका क्रियान्वय नहीं हुआ। क्रियान्वय करने वाले अधिकारियों ने मनमानी करने वाले अस्पतालों के साथ मिल कर जनता से गई उगाई का बटवारां किया। महाराष्ट्र सरकार द्वारा जारी किये गये नोटिफिकेशन के बावजूद किस तरह राज्य के निजी अस्पतालों ने लूट मचाई उसका एक उदाहरण आपसे साझा कर रहा हूं।
महाराष्ट्र सरकार ने दिनांक 31/8/2020 को आदेश जारी कर सभी कोरोना अस्पतालों में 80% बेड क्षमता सरकारी दर पर इलाज के लिए आरक्षित कर दी थी। केवल 20% बेड निजी अस्पताल अपनी सामान्य दर वसूलने के लिए स्वतंत्र थे, परंतु संपुर्ण राज्य में किसी भी निजी अस्पताल ने इसका पालन नहीं किया, न ही इस बात को मरीजों को बताया।
मैंने सूचना के अधिकार के तहत राज्य सरकार से जानकारी मांगी कि राज्य में जिन 80% मरीजों का सरकारी दर पर इलाज हुआ, उसकी सूचि उपलब्ध कराई जाये जिसके जवाब में मुझे लिखित उत्तर दिया गया सरकार के पास ऐसी कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है, क्योंकि सरकार ने ऐसा कोई आक़ड़े जमा ही नही किये है। सरकार का काम सिर्फ योजना घोषित करने का नहीं है। बल्कि यह देखने का भी है कि उसका लाभ जनता को मिल भी रहा है कि नहीं।
बीमा कंपनियों ने भी झटके हाथ :
जिन लोगों के पास इन्शोरेन्स कंपनी की केशलेस पॉलीसी सुविधा थी उन्हें भी उसका फायदा नहीं दिया गया और सारी रकम अग्रीम नगद जमा कराई गयी। इन्शोरेन्स कंपनियों ने भी मरीजों को सरकारी दरों का बहाना बताकर पूरा क्लेम देने से मना कर दिया। मरीजों की तमाम शिकायतों के बावजूद अधिकारियों ने उनकी सुद्ध नहीं ली और ये गोरखधंधा चलता रहा। मरीज लुटते रहे और गरीब होते गये। आयुष्यमान भारत योजना के तहत आनेवाले मरीजों को भी योजना का फायदा नहीं मिला।
पूर्व में ही स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण के परिणामों से किया था आगाह :
अर्थशास्त्र के नोबेल पुरस्कार विजेता अमरीका के कैनयएरो ने 1963 में ही चेतावनी दी थी कि स्वास्थ्य सेवा को बाजार के हवाले कर देना आम लोगों के लिए घातक साबित होगा।
उपाय जो सरकार करे :
निजी अस्पतालों द्वारा की गई इस महालूट से जनता को राहत देने के लिये केंद्र व राज्य सरकारों द्वारा मिलकर इसका ऑडिट कराने के निदेश देने चाहिये और मरीजों से लूटे गये पैसे उन्हें वापस दिलाने कि लिये तत्काल कदम उठाने चाहिये। सरकारों द्वारा स्पष्ट नीति व दिशानिर्देश बनाकर निजी अस्पताल / जाँच सेंटर / पैथोलाजी लैब सभी की अधिकतम दर निर्धारीत करनी चाहिए, साथ ही अस्पतालों को श्रेणी अनुसार वर्गीकृत करना चाहिये। इन दरों की जानकारी का फलक भी अस्पतालों में लगाना अनिवार्य करना चाहिये।