एक जमाना था, जब डॉक्टरों को भगवान का रूप माना जाता था. मगर 21वीं सदी में कई मरीजों के लिए ऐसे भगवान,… अब ‘लूट के शैतान’ बन चुके हैं! चिकित्सा का क्षेत्र भी अब समाजसेवा नहीं,… बल्कि राजनीति, कला, खेल, शिक्षा, और पत्रकारिता की तरह ‘मुनाफे का पेशा’ हो गया है, जहां जरायमपेशा लोग मरीजों को लाखों रुपयों से लूटने लगे हैं. इस सप्ताह ऐसी तीन घटनाएं प्रकाश में आयीं, जिसमें परिजनों से 16-16 लाख रुपये के बिल वसूलने के बाद उन्हें थमा दी गई उनके मरीजों की लाशें! अब सवाल उठता है कि क्या लाखों (रुपयों) की तलाश में ही रहते हैं ‘लाशों के शिकारी’…?
दिल्ली से सटे गुरुग्राम (गुड़गांव) के प्रसिद्ध फोर्टिस अस्पताल में 7 साल की आद्या जयंत सिंह का 15 दिनों तक डेंगू का इलाज चला,… लेकिन यह मासूम बच्ची 16 लाख की लाश में तब्दील हो गई! उसी तरह दिल्ली के नामचीन मेदांता अस्पताल में 7 साल के ही डेंगू-पीड़ित बच्चे शौर्य प्रताप सिंह ने भी 22 दिन में 16 लाख रुपए के महंगे इलाज के बावजूद दम तोड़ दिया! तीसरी घटना नोएडा (यूपी) के एक बड़े अस्पताल की है, जहां 40 साल के मनोज मिश्रा के पेटदर्द का इलाज 12 दिन चला और उनकी लाश के साथ बिल आया पूरे 8 लाख का! इसमें परिजनों ने थाने में रिपोर्ट दर्ज कराई कि 3 दिन पहले ही मनोज की मौत हो गई थी, फिर भी अस्पताल प्रशासन ने ज्यादा बिल वसूलने के लिए उनके मरीज को जानबूझकर वेंटिलेटर पर रखा!
जिन्होंने अक्षयकुमार अभिनीत फिल्म ‘गब्बर इज कम बैक’ देखी हो, वे इस बात से सहमत होंगे कि देश के नामी और निजी अस्पताल ही अब धनखोरी और लूटखोरी में मानवता भूलकर इस पवित्र रिश्ते को कलंकित करने लगे हैं! यहां लाखों रुपयों के महंगे इलाज के बावजूद बच्चे/मरीज बचाए नहीं जा सकते. यहां इलाज के दौरान इस्तेमाल की गई चीजों (ग्लव्स, थर्मामीटर, सिरिंजेस, शुगरबट, पैड, दवाइयां, इंजेक्शन आदि) के दाम तय कीमत से कई गुना ज्यादा वसूले जाते हैं. 7 साल की आद्या और शौर्य के इलाज में पंद्रह-पंद्रह सौ ग्लव्स का इस्तेमाल होना भी समझ से परे है. विडंबना यह कि 10-15 रुपए वाले ग्लव्स की कीमत भी दो-दो सौ रुपए वसूली गई. जबकि 50-60 रुपए वाले थर्मामीटर का बिल भी 325 रुपए लिया गया! ऐसी सारी चीजें अस्पताल में ही मौजूद दवा दुकानों से लेने की बाध्यता होती है. मरीज के परिजन ‘मरता क्या न करता’ वाली स्थिति में होते हैं. फिर ऐसे बड़े अस्पताल समय-समय पर इलाज के दस्तावेज (फाइल) भी मरीजों के परिजनों को न देते हैं, न दिखाते हैं! बल्कि दबा कर रखते हैं. क्योंकि संबंधित मरीज की जांच की प्रगति-रिपोर्ट देने से उनकी ‘दुकानदारी’ बंद होने का खतरा बना रहता है.
पीड़ित व मजबूर लोग, अच्छा और नामी निजी अस्पताल समझकर बेहतरीन इलाज मिलने की उम्मीद में अपने मरीज को यहां लाते हैं, मगर अपने प्रियजन की लाश के साथ लाखों रुपयों का बिल भुगतान कर रोते-बिलखते वापस जाते हैं! क्या यह दुखद स्थिति नहीं है? क्या इनकी लूटखोरी और धनखोरी रोकने के लिए सरकार के पास कोई नीति-पॉलिसी नहीं है? हालांकि देश के स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा ने उक्त दोनों ही प्रकरणों का संज्ञान लेकर उच्चस्तरीय जांच के आदेश दिए हैं. मगर क्या इससे आद्या, शौर्य और मनोज के प्राण वापस आ जाएंगे? जब तक ऐसे ‘शिकारियों’ की लालच का इलाज नहीं होगा, इन शैतानों की लूटखोरी-धनखोरी ऐसे ही चलती रहेगी!
ऐसे बड़े निजी अस्पताल, देश में ‘हम ही बेहतरीन’ होने का दावा तो करते हैं, मगर जब इनकी सच्चाई बाहर आती है और यहां होने वाली मौतों के आंकड़े सामने आते हैं, तो इन के ‘गुब्बारे की हवा’ निकल जाती है. मरीज, यहां स्वस्थ होने की उम्मीद में आता है और लाखों का बिल भुगतान कर लाश के रूप में ही लौटता है! जाहिर है लूट के अड्डों में मरीजों की हालत पर कम, और उसके बिल को बढ़ाने पर ही ज्यादा ध्यान दिया जाता है. आम मरीजों को ग्राहक समझ, उनकी जेबें काटने का काम ऐसे लुटेरे निजी अस्पताल कर रहे हैं! अफसोस है कि भारत में ऐसे मामलों से फायदा उठाने वाला एक बहुत बड़ा नेक्सस(गिरोह) बन चुका है, जिसमें दवा कंपनियां, केमिस्ट से लेकर अस्पताल संचालक तक शामिल हैं. इन सबको उनका ‘कमीशन’ भी मिलता है. अब ऐसी लूट को सहना बंद करना होगा! इनकी शिकायत मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया में की जानी चाहिए. सरकार को भी इस समस्या का स्थायी हल ढूंढना होगा, तभी समाज चैन की सांस ले पाएगा.