नई दिल्लीः उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के गृह नगर गोरखपुर में भाजपा को दिख रही करारी हार केवल एक सीट पर एक उम्मीदवार की हार नहीं है, बल्कि इसके कई दूरगामी परिणाम होने वाले हैं. उसे ऐसे समय में यह हार देखनी पड़ी है जब देशभर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की लहर है. गोरखपुर को उत्तर प्रदेश में भाजपा का गढ़ माना जाता है. इस सीट पर 1989 से लगातार गोरखनाथ मठ का कब्जा रहा है. 1989 में मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी के गुरु अवैद्यनाथ चुनाव जीते थे. तब से लगातार यह सीट भाजपा के पास रही. 1998 से लगातार योगी आदित्यनाथ यहां से चुनाव जीतते रहे. अब सवाल उठता है कि इस सीट पर भाजपा की इतनी मजबूत स्थिति होने के बावजूद वह वहां से क्यों हार गई? इसी सवाल का जवाब जानने के लिए हमने गोरखपुर को करीब से जानने वाले वरिष्ठ पत्रकार प्रभात सिंह से बात की…
मठ से बाहर के उम्मीदवार
गोरखपुर की पहचान गोरखपुर मठ से है. 1989 में गोरखनाथ मठ के प्रमुख अवैद्यनाथ की जीत के बाद से इस सीट पर मठ का कब्जा रहा. यहां पर मठ से जुड़े लोगों का ठीक ठाक वोट बैंक हैं. वे अक्सर मठ के नाम पर वोट देते हैं, लेकिन पिछले तीन दशक में ऐसा पहली बार हुआ है जब किसी चुनाव में भाजपा ने मठ से अलग किसी व्यक्ति को चुनाव मैदान में उतारा था. भाजपा ने यहां ब्राह्मण समुदाय के उपेंद्र दत्त शुक्ल को उम्मीदवार बनाया. शुक्ल को टिकट देने के पीछे एक अहम कारण गोरखपुर में ब्राह्मण जाति के मतदाताओं की अच्छी-खासी संख्या था. लेकिन यहां के मतदाताओं खासकर आंख बंद कर मठ की भक्ति से रहने वाले वाले मतदाता शुक्ल को स्वीकार नहीं कर पाए.
गोरखनाथ मठ पर दावा
गोरखनाथ पीठ की स्थापना गुरु गोरखनाथ ने की थी. इसे राजपुत समुदाय का इकलौता पीठ माना जाता है. लेकिन गोरखपुर में निषाद समुदाय प्रभावी है. निषाद समुदाय का दावा है कि इस पीठ की स्थापना गुरु गोरखनाथ के गुरु मत्स्येंद्रनाथ ने की थी, जो निषाद समुदाय से आते थे. मतदान से ऐन पहले निषाद सभा के अध्यक्ष संजय निषाद ने खुद अपने समुदाय के नेता और सपा उम्मीदवार प्रवीण निषाद की जीत की दुआ करने गोरखनाथ मंदिर गए थे. इससे गोरखनाथ पीठ के मतदाताओं में एक तरह से भ्रम की स्थिति पैदा हुई और कुछ मतदाता भाजपा उम्मीदवार शुक्ला को स्वीकार नहीं कर पाए.
भाजपा उम्मीदवार का बीमार पड़ना
भाजपा उम्मीदवार के रूप में मैदान में उतरे शुक्ला चुनाव प्रचार के दौरान गंभीर रूप से बीमार पड़ गए. इस कारण वह अंतिम समय में चार-पांच दिनों के लिए चुनाव प्रचार से दूर रहे. इस दौरान खुद योगी ने काफी प्रचार किया लेकिन मतदाता उन्हें स्वीकार नहीं कर पाए.
SP-BSP के बीच गठजोड़
इस चुनाव में बसपा की ओर से सपा उम्मीदवार के पक्ष में वोट डालने की गई अपील ने पूरे चुनावी माहौल को बदलकर रख दिया. दरअसल, बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में चुनाव आमतौर पर जातीय समीकरणों के आधार पर लड़े जाते है. सपा के समर्थन में बसपा के उतरने के बाद से पूरा जातीय समीकरण भाजपा के खिलाफ हो गया था. वैसे भी पिछले कई चुनावों में देखा गया है कि भाजपा के खिलाफ सपा और बसपा को मिलने वाले वोट हमेशा से ज्यादा रहे हैं.
सपा के मजबूत उम्मीदवार
गोरखपुर में सपा ने भी जातीय समीकरण को साधते हुए अपने उम्मीदवार उतारे. पार्टी ने यहां से प्रवीण निषाद को मैदान में उतारा. गोरखपुर लोकसभा क्षेत्र में निषाद समुदाय के मतदाताओं को अच्छी खासी संख्या है. ऐसे में निषाद, यादव, अल्पसंख्यक, दलित और ओबीसी की अन्य जातियों ने एकजुट होकर सपा के पक्ष में वोट डाला, जो भाजपा के जातीय समीकरण पर भारी पड़ा.