Published On : Mon, Jan 8th, 2018

जाति-अभिशप्त बिहार !

Advertisement


लालू पर लघु आलेख के बाद अनेक युवा पत्रकारों की इच्छानुसार आज़ादी पूर्व और आज़ादी पश्चात के आरंभिक बिहार में व्याप्त जातीय रोग से संबंधित कुछ कड़वे सच की जानकारी साझा कर रहा हूँ।

इंडिया एक्ट 1935 के तहत बिहार में चुनाव के बाद पहली बार 1937 में कांग्रेस नेतृत्व की सरकार बनने जा रही थी।नेता का चुनाव होना था।महात्मा गांधी ने बाबू राजेन्द्र प्रसाद को पत्र लिख कर इच्छा जताई थी कि अनुग्रह नारायण सिंह को नेता चुना जाए।सदाकत आश्रम में हो रही बैठक में राजेन बाबू ने गांधी जी की इच्छा से लोगों को अवगत करा दिया। अनुग्रह बाबू के नाम पर सहमति बनी ही थी कि सर गणेश दत्त सिंह और स्वामी सहजानंद सरस्वती ने श्रीकृष्ण सिंह का नाम प्रस्तावित कर दिया।बता दूं कि अनुग्रह बाबू राजपूत जाति के थे और श्रीकृष्ण सिंह भूमिहार।सर गणेश दत्त और स्वामी जी भी भूमिहार थे।श्रीबाबू का नाम भी सामने आने पर स्वयं अनुग्रह बाबू ने उनके पक्ष में अपनी सहमति जता दी।इस प्रकार श्रीकृष्ण सिंह बिहार के पहले प्रधानमंत्री बने।तब व्यवस्थानुसार,राज्यों के लिए मुख्यमंत्री नहीं, प्रधानमंत्री का पद था।

पहली सरकार में ही जातीयता का आलम ये था कि प्रायः सभी महत्वपूर्ण पदों पर भूमिहार जाति को प्राथमिकता दी जाती थी।अनेक ऐसे पद थे जो महीनों भले खाली रह जाएं, जबतक भूमिहार उम्मीदवार न मिले नियुक्ति नहीं होती थी। लेकिन श्रीबाबू की प्रशासनिक क्षमता ऐसी कि सरकार का कामकाज बगैर किसी प्रतिकूल प्रभाव के सुचारूपूर्वक चलता था। इसका सुंदर प्रमाण आज़ादी के बाद देखने को मिला।

Gold Rate
Tuesday 21 Jan. 2025
Gold 24 KT 79,700 /-
Gold 22 KT 74,100 /-
Silver / Kg 92,000 /-
Platinum 44,000/-
Recommended rate for Nagpur sarafa Making charges minimum 13% and above

1952 और 1957 के आमचुनाव के बाद कांग्रेस में नेता पद के चुनाव में श्रीबाबू और अनुग्रह बाबू आमने-सामने होते थे।जीतते श्रीबाबू थे।लेकिन मंत्रिमंडल गठन की जिम्मेदारी श्रीबाबू स्वयं अनुग्रह बाबू को सौंप देते थे।आज की राजनीति के बिल्कुल उलट।आज तो चुनौती देने वाले को मंत्रिमंडल में शामिल तक नहीं किया जाता।बता दूं कि कृष्ण बल्लभ सहाय वगैरह अनुग्रह बाबू की पसंद पर ही मंत्रिमंडल में शामिल किए जाते थे।कोई आश्चर्य नहीं कि बिहार तब देश का सर्वाधिक सुशासित प्रदेश माना जाता था।

बिहार में जातीयता के निराले खेल का एक और दिलचस्प पहलू है। पहले शिक्षा के क्षेत्र में सवर्ण कायस्थ और ब्राह्मण आगे थे। अन्य दो सवर्ण राजपूत और भूमिहार इसे लेकर चिंतित थे।आर्थिक रूप से सक्षम इन दोनों जाति के नेताओं ने पहल कर स्कूल-कॉलेज खोलने शुरू कर दिए।अपनी जाति के लोगों में पढ़ाई को लेकर जागृति अभियान चलाए। प्रोत्साहन के रूप में अपनी-अपनी जाति के बच्चों को आर्थिक सहायता भी दी गईं। आज भी बिहार में अनेक शिक्षण संस्थान जातीय पहचान के साथ मौजूद हैं।

बात यहीं खत्म नहीं होती। सवर्णों में शिक्षा के प्रति पहल देख पिछड़ी जाति के नेता सतर्क हुए।आर्थिक रूप से सक्षम पिछड़ी जाति के नेताओं ने सवर्णो की तर्ज़ पर अपनी जाति के बच्चों को आर्थिक सहायता पहुंचा पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किए। इनमें बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल,बाद में जिनकी अध्यक्षता में मंडल आयोग का गठन हुआ था,के पिताजी का नाम सबसे ऊपर था।पिछड़ी जाति के बच्चों को हर प्रकार की सहायता उपलब्ध करा पढ़ाई के लिए मुख्यतःउन्होंन औरे अन्य पिछड़ी जाति के नेताओं ने प्रेरित किया था। “क – वर्ग” आंदोलन,अर्थात कमजोर वर्ग आंदोलन, उन्हीं प्रयासों की उत्पत्ति थी।

लब्बोलुआब ये कि बिहार जातीय रोग से पहले भी अभिशप्त था, आज भी है।

Advertisement