शहीद दिवस विशेष
नागपुर– देश की आजादी में क्रांतिकारी बलिदान को याद करते हुए हमारे दिमाग में सबसे पहली तस्वीर उभरकर आती है, वो है वीर सपूत शहीद ए भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की, जिन्हें 23 मार्च 1931 को फांसी दी गई थी। शहादत की उस रात को पूरा देश रो रहा था। भगत सिंह न केवल एक क्रांतिकारी देशभक्त थे, बल्कि एक शिक्षित विचारक, कलम के धनी, दार्शनिक, विचारक, लेखक, पत्रकार भी थे। 23 साल की छोटी उम्र में, उन्होंने फ्रांस, आयरलैंड और रूस की क्रांति का अध्ययन किया। हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, संस्कृत, पंजाबी, बंगाली और आयरिश भाषा के मर्मक चिंतक और विचारक भगत सिंह भारत में समाजवाद के व्याख्याता थे। भगत सिंह एक अच्छे वक्ता और पाठक थे। जेल में रहते हुए, देश के इन क्रांतिकारीयों ने अग्रेंजो के अमानवीय अत्याचारों को सहन किया, लेकिन अपने लक्ष्य के प्रति अडिग रहे। जेल में भगतसिंह के सेल नंबर 14 की हालत बहुत खराब थी, वहां घास उग आयी थी। कोठरी में केवल इतनी जगह थी कि वे मुश्किल से उसमें लेट सकते थे।
भगत सिंह को किताबें पढ़ने का शौक था, फांसी देने से पहले भगत सिंह ”बिस्मिल“ की जीवनी पढ़ रहे थे। फांसी की शाम मिलने आए वकील मेहता से भगत सिंह ने मुस्कुराते हुए पूछा कि क्या आप मेरे लिए किताब “रिवॉल्यूशनरी लेनिन” लेकर आए हैं? जब किताब उन्हें दी गई, तो उन्होंने उसे तुरंत पढ़ना शुरू किया जैसे कि उनके पास ज्यादा समय नहीं बचा हो। वकील मेहता ने उनसे पूछा कि क्या आप देश को कोई संदेश देना चाहेंगे? भगत सिंह ने किताब से अपना मुंह हटाए बिना कहा, केवल दो संदेश- साम्राज्यवाद मुर्दाबाद और इंकलाब जिंदाबाद! वकील मेहता के जाने के कुछ समय बाद, जेल अधिकारियों ने तीनों क्रांतिकारियों से कहा कि उन्हें तय समय से 11 घंटे पहले फांसी दी जा रही हैं अर्थात अगले दिन सुबह छह बजे की बजाय उन्हें आज शाम सात बजे ही फांसी दी जाएगी। भगत सिंह वकील मेहता द्वारा दी गई पुस्तक के केवल कुछ पृष्ठ ही पढ़ पाए थे, तो उनके मुंह से निकला, क्या आप मुझे इस पुस्तक का एक अध्याय भी पूरा नहीं पढने देंगे?
भगत सिंह ने जेल में एक मुस्लिम सफाई कर्मचारी बेबे से फांसी के एक दिन पहले शाम को अपने घर से खाना लाने के लिए अनुरोध किया था, लेकिन बेबे भगत सिंह की इस इच्छा को पूरा नहीं कर सके, क्योंकि ग्यारह घंटे पहले भगत सिंह को फांसी देने का फैसला लिया गया था और बेबे जेल के गेट के अंदर नहीं जा सके। थोड़े समय बाद, तीनों क्रांतिकारियों को फांसी की तैयारी के लिए उनकी कोठरीयो से बाहर लाया गया। भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने अपने हाथ जोड़े और अपना पसंदीदा स्वतंत्रता गीत गाना शुरू किया – ”सरफरोशी की तमन्ना हमारे दिलों में है …“
भगत सिंह अपने दो साथियों के बीच खड़े थे, भगत सिंह ने अपनी माँ से किया गया अपना वादा पूरा करना चाहते थे कि वे फाँसी के तख्ते पर चढ “इंकलाब जिंदाबाद” के नारे लगायेंगे। तीनों क्रांतिकारियों ने “इंकलाब जिंदाबाद” के नारे लगाए और भगत सिंह सुखदेव, राजगुरु ने बहादुरी से फांसी को गले लगा लिया।
लाहौर की सेंट्रल जेल में निर्धारित समय से पहले फांसी लगाने के बाद, पूरे पुलिस बल को वहां से हटा दिया गया। लोगों के दिलों में अग्रेजी हुकूमत के खिलाफ काफी आक्रोश था। उस दिन कोई भी अंग्रेजी अधिकारी को दिखाई देता तो, मार-काट होती, लाशें बिछ जाती, कोई जिंदा नहीं बचता। लोग सड़कों पर निकल कर अपना विरोध व्यक्त कर रहे थे, लेकिन गुस्सा होने के बजाय, वे असहाय विलाप कर रहे थे। लेकिन अंग्रेजों ने विद्रोह के आशंका से, भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को निर्धारित तारीख से एक दिन पहले 23 मार्च 1931 की शाम को जेल के अंदर चुपचाप फांसी पर लटका दिया और उनके पार्थिव शरीर को जेल से हटाकर फिरोजपुर के पास सतलज के तट पर ले गये। तब तक रात के 10 बज चुके थे।
अंग्रेज इन शहिदो के पार्थिव शरीर के साथ भी क्रूर व्यवहार से पेश आये। अंग्रेजी सैनिकों द्वारा उनके पार्थिव शरीर में आग लगाई गई ही थी कि लोगो को इसकी भनक लग गई और उस ओर लोग दौड पडे। जैसे ही ब्रिटिश सैनिकों ने लोगों को अपनी ओर आते देखा, वे शव छोड़कर अपने वाहनों की ओर भाग गए। पूरी रात गांव के लोग उन शवों के आसपास पहरा देते रहे। यह खबर मिलते ही पूरे देश में मातम फैल गया। देश के वीर सपूतो ने देश के लिए अपना जीवन न्यौछावर कर दिया था, संपुर्ण जीवन सिर्फ देश के लिये है और जवानी देश के आजादी के काम आये यही उनका ध्येय था। इन शहीदों की शहादत ने न केवल हमारे देश के स्वाधीनता संग्राम को गति दी, बल्कि नौजवानों के प्रेरणा स्रोत भी बने। वह देश के सभी शहीदों के सिरमौर बन गए। आज भी पूरा देश उनके बलिदान को बड़ी गंभीरता और सम्मान के साथ याद करता है।
“मेरी कलम मेरी भावनावो से इस कदर रूबरू है कि मैं जब भी इश्क लिखना चाहूं तो हमेशा इन्कलाब लिखा जाता है”। — भगत सिंह।
डॉ. प्रितम भि. गेडाम
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