क्या संसद के अंदर ही लोकतंत्र की हत्या हो रही है? भारतीय लोकतंत्र के लिए अत्यंत ही असहज व विचलित करने वाला यह सवाल आज आम लोगों के बीच चर्चा का विषय बना हुआ है. लोकतांत्रिक भारत में ऐसा सवाल क्यों? वह कौन सी परिस्थिति अथवा बाध्यता है जिसने इस पीड़ादायक सवाल को जन्म दिया? ध्यान रहे, पिछले कुछ समय से केंद्र की वर्तमान मोदी सरकार पर आरोप लगते रहे हैं कि वह लोकतंत्र के वर्तमान स्वरूप में आमूलचूल परिवर्तन करना चाहती है. बल्कि अपरोक्ष में आरोप, तो यह है कि सरकार लोकतंत्र के आवरण में तानाशाही का उदय चाहती है. यह लोकतंत्र पक्षधर तमाम भारतवासियों के लिए विचलित कर देने वाली घटना है. दुखद कि इसके लिए लोकतंत्र के पवित्र मंदिर सर्वोच्च सदन के इस्तेमाल के प्रयास हो रहे हैं.
पिछले दिनों राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा के दौरान कांग्रेस के राहुल गांधी ने मोदी सरकार, बल्कि सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर अनेक तीखे आरोप लगाए. इसके लिए राहुल ने कथित रूप से विवादित उद्योगपति गौतम अडानी व उनकी कंपनियों का सहारा लिया. राहुल ने आरोप लगाया कि स्वयं प्रधानमंत्री मोदी कारोबारी अडानी को लाभ पहुंचाने के लिए स्थापित नियम-कानूनों में फेर बदलकर, अपने पद का दुरुपयोग कर पक्षपाती भूमिका निभा रहे हैं. न केवल देश के अंदर, बल्कि विदेशों में भी अडानी को ठेके दिलवाने के लिए प्रधानमंत्री ने निजी रुचि दिखाई. इतना कि जो अडानी सन 2014 के पूर्व विश्व के अमीरों की सूची में 609वें स्थान पर थे, उन्हें आज दूसरे स्थान पर पहुंचा दिया. राहुल ने इसका श्रेय प्रधानमंत्री को देते हुए पूछ डाला कि आखिर यह रिश्ता क्या कहलाता है. ध्यान देने योग्य तथ्य यह कि जब राहुल गांधी सदन को संबोधित कर रहे थे तब सत्ता पक्ष की ओर से टोकाटोकी तो हुई, किन्तु किसी भी असंसदीय शब्द या भाषा का प्रयोग नहीं किया. अध्यक्ष की ओर से उन्हें ऐसी कोई चेतावनी नहीं मिली.
राज्यसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने भी सरकार की घेराबंदी करते हुए सीधे-सीधे प्रधानमंत्री पर अनेक आरोप लगाए. खड़गे ने भी प्रधानमंत्री मोदी पर गौतम अडानी के पक्ष में नियम-कानूनों को बलाय ताक रखने का आरोप लगाया.
इसके बाद अपेक्षा की जा रही थी कि प्रधानमंत्री मोदी आरोपों का सिलसिलेवार जवाब देंगे, किन्तु ऐसा नहीं हुआ. पहले लोकसभा में, फिर राज्यसभा में भी प्रधानमंत्री मोदी ने लम्बे भाषण तो दिए, किन्तु कांग्रेस द्वारा लगाए गए आरोपों के जवाब नहीं दिए. पूर्व की भांति प्रधानमंत्री नेहरू-गांधी परिवार को निशाने पर लेते रहे. तंज कसते रहे, किन्तु आरोपों का जवाब देने से किनारा कर गए. दुर्भाग्य कि तंज कसने की प्रक्रिया में प्रधानमंत्री मोदी नेहरू ‘सरनेम’ का इस्तेमाल नहीं किए जाने को लेकर बोल गए कि नेहरू परिवार के लोग नेहरू ‘सरनेम’ रखने से शर्माते क्यों हैं. राजनीतिक विश्लेषक इस टिप्पणी पर हतप्रभ रह गए. भारत के प्रधानमंत्री भला ऐसी हास्यास्पद टिप्पणी कैसे कर सकते हैं. क्या उन्हें यह पता नहीं कि ‘सरनेम’ पिता के नाम के साथ आगे बढ़ता है. क्या उन्हें यह मालूम नहीं कि राहुल गांधी व वरुण गांधी क्रमश: राजीव गांधी व संजय गांधी के पुत्र हैं. क्या उन्हें यह नहीं मालूम कि राजीव गांधी व संजय गांधी फिरोज गांधी के पुत्र थे. क्या उन्हें यह नहीं मालूम कि फिरोज खान को महात्मा गांधी ने अपना दत्तक पुत्र बनाकर अपना नाम दिया था अर्थात ‘सरनेम’ दिया था. और तब से परिवार में नेहरू की जगह गांधी ‘सरनेम’ आया. प्रधानमंत्री मोदी ने नेहरू ‘सरनेम’ का इस्तेमाल नहीं करने पर संसद के अंदर तंज कस स्वयं को मजाक का पात्र बना डाला. भारत जैसे देश के प्रधानमंत्री से ऐसी अपेक्षा नहीं की जाती. बहरहाल, ऐसी ‘दुर्घटनाओं’ की तो अब लम्बी सूची बन चुकी है.
हमारी आपत्ति लोकसभा अध्यक्ष व राज्यसभा सभापति द्वारा क्रमश: राहुल गांधी व मल्लिकार्जुन खड़गे के भाषणों के अनेक अंशों को संसद की कार्यवाही से निकाल दिए जाने को लेकर है. इन्होंने अपने भाषणों में असंसदीय शब्द अथवा भाषा का प्रयोग तो नहीं किया था. इन्होंने सरकार पर आरोप लगाए थे, जिसका जवाब दिया जाना चाहिए था. रोचक तथ्य तो यह कि लोकसभा व राज्यसभा की संबंधित कार्यवाही का सीधा प्रसारण ‘संसद टीवी’ द्वारा किया गया था. देश के अन्य निजी खबरिया चैनलों ने भी सीधा प्रसारण किया था. देश-दुनिया के लोगों ने उन्हें देखा और सुना. बल्कि राजनीतिक विश्लेषकों के साथ-साथ आम लोगों ने भी राहुल गांधी के संबोधन को सराहा. उसे एक परिपक्व संबोधन के रूप में देखा गया. संभवत: यह पहला अवसर था जब राहुल गांधी के आलोचकों ने भी उनके संबोधन की प्रशंसा की.
फिर एक विस्फोट हुआ. जी हां, विस्फोटक जानकारी प्रसारित हुई कि लोकसभा के अध्यक्ष व राज्यसभा के सभापति ने क्रमश: राहुल गांधी व मल्लिकार्जुन खड़गे के भाषणों के अनेक अंश संसद की कार्यवाही से निकाल दिया. इसे लेकर विपक्ष हल्ला बोल रहा है कि अब तो स्वयं संसद के अंदर लोकतंत्र की हत्या हो रही है. सचमुच यह हास्यास्पद है कि जिन संबोधनों को खबरिया चैनलों पर सीधे प्रसारण के द्वारा देश-विदेश में देखा गया, उसके कुछ अंशों को बाद में कार्यवाही से निकाल क्यों दिया गया. क्या सिर्फ इसलिए कि भविष्य में शोधकर्ताओं को गौतम अडानी को लेकर सरकार पर लगे आरोपों के दस्तावेजी सबूत नहीं मिल पाएं. यह तो संसद की सीधे-सीधे अवमानना है. और अवमानना है भारतीय लोकतंत्र में निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की. निर्वाचित जनप्रतिनिधि संसद में जनता की आवाज माने जाते हैं. उन्हें अपनी बात रखने की छूट है. संसद में बोली गईं बातों को लेकर संबंधित सांसदों या संसद के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हो सकती. उन्हें ऐसी छूट संविधान प्रदत्त अभिव्यक्ति की आजादी से आगे बढ़ते हुए विशेषाधिकार के रूप में मिली हुई है, ताकि सांसद खुलकर निडरतापूर्वक अपनी बात संसद में रख सकें. संसद के माध्यम से देश को अवगत करा सकें. ऐसे में अगर क्रमश: अध्यक्ष और सभापति शब्दों पर कैंची चलाना शुरू कर देंगे तब संसद के अंदर लोकतंत्र की हत्या संबंधी दुर्भाग्यपूर्ण असहज सवाल तो खड़े होंगे ही.
ताजा प्रसंग राष्ट्रीय बहस का आकांक्षी है. भारत का लोकतंत्र ऐसे किसी भी आरोप को स्वीकार करने को तैयार नहीं है कि संसद के अंदर ही उसकी अर्थात लोकतंत्र की हत्या की जा रही है. इस पर सार्थक बहस हो. अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश और सर्वोच्च भारतीय संसद के सम्मान पर कुठाराघात की कोई कोशिश न करे. यही लोकतंत्र के हित में होगा. और हां, सरकार ऐसा कुछ न करे जिससे उसकी नीति और नियत कठघरे में खड़ी कर दी जाए. संसद में इसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी क्रमश: लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा सभापति की है.
ध्यान रहे, इन आसनों पर बैठने के बाद वे किसी दल विशेष के न होकर पूरे संसद के प्रतिनिधि बन जाते हैं. संसद की गरिमा व निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के अधिकारों व मान-सम्मान की जिम्मेदारी उन्हीं पर होती है.