Published On : Wed, Mar 8th, 2017

नारे जमीन पर !

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Dr Vikram Singh Pachlore
प्रजातंत्र का महापर्व होते है चुनाव, जिसकी आहट होते ही, सम्पूर्ण वातवरण अलग ही परिवेश में ढल जाता है. धार्मिक कृतियाँ में जो महाकुंभ का मान है, उसी समकक्ष सामाजिक और राजनैतिक क्षेत्र में चुनाव का स्थान है. चुनाव हालांकि जनतांत्रिक प्रक्रिया के माध्यम से जन के द्वारा, जन के लिए, जन की सरकार चुनने की कवायत है. इससरलऔर सहज प्रतीत होने वाले उद्देश्यकी प्राप्ति में कई जटिल क्रियाओं और प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है. चुनाव लड़ने और जीतने के लिए सभी पक्ष कई रणनीतियां और हथकंडे आज़माते है , जिसका मुलभुत , ‘चर्चा, पर्चा और खर्चा’इनआधारस्तंभों पे टिक्का होता है. किंतु जिसे हम चुनाव का हृदय और मस्तिष्क कहे सकते है, जो दल और बल , पक्ष और व्यक्ति, स्तिथियों और परिस्थितियों का सही मायने में दर्पण होते है, वो है – नारे, जुमले, या सियासी अश्यार . नारा, राजनैतिक, वाणिज्यिक, धार्मिक और अन्य संदर्भों में, किसी विचार या उद्देश्य को बारंबार अभिव्यक्त करने के लिए प्रयुक्त एक यादगार आदर्श-वाक्य या सूक्ति है।जहां आदर्श-वाक्यों के कई अलग मूल हो सकते हैं, वहीं नारों का उद्गम, रणनाद या युद्ध-घोष के रूप में या उनका प्रतिनिधित्व करने के लिए हुआ माना जाता है।समय समय पर सामाजिक राजनैतिक चेतना को जगाने और शासन व्यवस्था को आइना दिखाने का काम ये नारें करते आये है. भाषा की उत्पति से ही, मनुष्य ने अपना मत, मानसिकता,साहस, समर्थन या विरोध अभियक्ति के लिए नारों अथवा घोषवाक्योंका सहारा लिया है.नारों का अर्थ विचारों और संकल्पनाओं की शाब्दिक अभियक्ति से होता है. नारेकिसी भी संघंटन को एक छत्र , उधेश और शक्ति प्रदान कर , नई उर्जा और चैतन्य निर्माण करने का काम करते है.असल में चुनाव में नारे ही माहौल बनाते हैं। नारे ही पार्टियों के चुनाव अभियान में दम और कार्यकर्ताओं में जोश भरने का काम करते हैं। हर दल अपने-अपने प्रत्याशियों के समर्थन में गांव व देहात की गलियों में विकास और बदलाव का नारा देता है। नारे साहित्य की सबसे संक्षिप्त और शक्तिशाली विधाओं में से एक है. चुनावी दंगल में ‘ मौनं सर्व साधनं’ यह तत्वज्ञान काम नहीं आता, बल्कि नारों का जोर और शोर ही परिणामों का छोर निर्धारित करता है.नारों में चुनाव की आत्मा और वर्त्तमान परिस्तिथियों व संदेशों का मर्म छिपाहुआ होता है .

काल- ढाल और चाल के अनुरूप नारें-
नारों ने जनता को राजनीतिक रूप से शिक्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।. राजनीती में प्रसार और प्रचार के लिए , ‘नारा, नाम और निशान’, ये तीनों अहम् भूमिका निभाते है. हर संघटन या संग्राम से जुड़ा नारा उसकी भूमिका और तत्वज्ञान को स्पष्ट करता है. चाहे वो स्वतन्त्रतापूर्व बंकिमचंद्रजी का ‘वन्देमातरम’,गाँधीजी का ‘अंग्रेजों -भारत छोड़ो’, लालालाजपत रायजी का‘साइमन गो बैक’,टिलकजी का ‘स्वराज मेरा जन्मसिद्ध हक है, और मैं उसे लेकर ही रहूँगा, बोसजी का “तुम मुझे खून दो में तुम्हे आज़ादी दूंगा”.आजादी के बाद कम्युनिस्टों ने एक नारा दिया था–“देश की जनता भूखी है यह आजादी झूठी है”। उनका एक और नारा बहुत लोकप्रिय था– लाल किले पर लाल निशान मांग रहा है हिन्दुस्तान’.लालबहादुर शास्त्रीजी ने युद्ध की विकट परिस्थितियों में ‘ जय जवान-जय किसान’ का अमिट- अमर नारा देकर , देश की रगों में उमंग और उल्हास का प्रवाह कर, कृषि और सैन्य बल को समतल मान प्रदान किया. अटल बिहारी वाजपेयी ने भी जब अपने प्रधानमंत्री कार्यकाल में पोखरण का परिक्षण किया तब इसी कड़ी में , ‘जय जवान, जय किसान और जय विज्ञान’ का नारा प्रबल कर हमारे देश की वैज्ञानिक प्रगति और विकास युग का आगाज़ किया. साठ के दशक में भाजपा के पूर्व अवतार जनसंघ का नारा,‘जली झोपड़ी भागे बैल, ये देखो दीपक का खेल’ हुआ करता था।इसका करारा जवाब हुए कांग्रेस ने नारा दिया था -इस दीपक में तेल नहीं, सरकार बनाना खेल नहीं. ‘स्वर्ग से नेहरु रहे पुकार, अबकी बिटिया जइयो हार’ – इस कटाक्ष ने भी काफी सुर्खियाँ बटोरी.

प्रियदर्शिनीइंदिरा गाँधी द्वारा दिया गया ‘ गरीबी हटाओ’ औरइंदिरा जी की बात पर मोहर लगेगी हाथ पर (१९७१) के नारे ने दिल्ली से गल्ली तक इंदिराजी की पहेचन को प्रस्थापित किया. १९७८-१९८० के चुनाव में एक रौशनी सौ लंगूर – चिकमंगलूर, चिकमंगलूरइस नारे का ज़ोर था.1984 में इंदिराजी की हत्या के बाद,‘जब तक सूरज-चांद रहेगा, इंदिरा तेरा नाम रहेगा’, जैसे नारे ने पूरे देश में सहानुभूति लहर पैदा की, और कांग्रेस को बड़ी भारी जीत हासिल हुई . इस नारे को मंत्र की तरह प्रयोग में लाया गया. जयप्रकाश नारायण द्वारा शुरू किये गए आन्दोलन केसमय‘इंदिरा हटाओ -देश बचाओ’.१९७४ में जब बिहार में जेपी का आंदोलन शुरू हुआ तो उसने जन-जन को झकझोर दिया। कैसा अजीब संयोग है राष्ट्रकवि के रूप में जाने जाने वाले रामधारी सिंह दिनकर की ये पंक्तियाँ जयप्रकाश नारायण के सम्पूर्ण क्रांति का नारा बनीं.सम्पूर्ण क्रांति अब नारा है, भावी इतिहास तुम्हारा है, ये नखत अमा के बुझते हैं, सारा आकाश तुम्हारा है.उनकी ही कविता थी- दो राह, समय के रथ का घर्घर नाद सुनो/ सिंहासन खाली करो कि जनता आती है. उनकी कविता की ये पंक्तियाँ इमरजेंसी के खिलाफ संघर्ष का प्रतीक बनी। उनका नारे की तरह इस्तेमाल हुआ।इसने नयी क्रांति का आगाज़ किया. आपातकाल (इमरजेंसी) के समय कई क्रांतिकारी उद्घोष और नारों ने जन्म लिया , जिसने समाजवाद की नीँव रखी और एक नयी विचारधारा वाली पीढ़ी का उगम हुआ. लोहिया, दीनदयाल उपाध्य इनकी विचार सरणी ने भारतीय राजनीतिको वैचारिक व सामाजिक मंथन का नया आयाम जोड़ा.

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डा. राम मनोहर लोहिया ने देश की राजनीति को बहुत से ऐसे नारे दिए जिन्हें आज भी याद किया जाता है। १९६७ में पिछड़ों के आरक्षण कोलेकर जो सबसे ज्यादा प्रचिलित नारा रहा वो था -, ‘समाजवादियों ने बंधी गांठ , पिछड़े पावे सौ में साठ’. इसी‘सोशल इंजीनियरिंग’ का उपयोग १९९३ के चुनाव में सपा– बसपा गटबंधन की शक्ति को दर्शाते हुए नारा दिया गया,‘मिले मुलायम और कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्री राम’. गोरक्षा आंदोलन के दौरान जनसंघ का यह नारा लोगों की जुबान पर चढ़ गया था -‘गाय हमारी माता है, देश धर्म का नाता है’. समाजवादियों और साम्यवादियों की ओर से 1960 के दशक में धन और धरती बंट के रहेगी, भूखी जनता चुप न रहेगी जैसे नारे उछाले गए थे। चुनावों में खुला दाखिला सस्ती शिक्षा लोकतंत्र की यही परीक्षा जैसे नारे भी लगते रहे हैं।इमरजेंसी और संजय गांधी के समय यह नारे खूब चले थे- “जमीन गई चकबंदी मे, मकान गया हदबंदी में, द्वार खड़ी औरत चिल्लायए, मेरा मर्द गया नसबंदी में।” और”जगजीवन राम की आई आंधी, उड़ जाएगी इंदिरा गांधी, आकाश से कहें नेहरू पुकार, मत कर बेटी अत्याचार।”. जनता पार्टी के ढाई साल के शासन से त्रस्त जनता की भावनाओं को भुनाकर कांग्रेस ने अपने पक्ष में माहौल तैयार करने के लिए नारा दिया- आधी रोटी खाएंगे, इंदिरा जी को लाएंगे ‘ इसी के साथ और ‘इंदिरा लाओ, देश बचाओ’नारा भी खूब चला। इसी तरह कांग्रेस के लिए साहित्यकार श्रीकांत वर्मा का लिखा यह नारा भी काफी बहुत चर्चित रहा – जात पर न पात पर इंदिराजी की बात पर मुहर लगाना हाथ पर. 1984-85 में राजीव गांधी जब पहला चुनाव लड़े तो उनकी सभाओं में जुटी भीड़ एक तरफ हाथ उठाती तो दूसरी तरफ यह नारा गूंजता था – ‘उठे करोड़ों हाथ हैं, राजीव जी के साथ हैं.’ अमेठी में कांग्रेस की स्टार प्रचारक के तौर पर जब प्रियंका गांधी प्रचार करने पहुंचीं तो वहां के लोगों की जुबां पर बस एक ही नारा था – अमेठी का डंका, बेटी प्रियंका. कांग्रेस का प्रचिलित नारा , ‘कांग्रेस का हाथ, आम आदमी के साथ’ , इसका महत्व और उपयोग आम आदमी पार्टी के गठन के बाद से कम होता चला गया. आप और कांग्रेस को लेकर किसी भी तरह का असमंजस्यनिर्माण न हो , इस लिए इस वज्र घोष का भी त्याग कर दिया गया.

१९८९ में विश्वनाथप्रताप सिंह के लिए उपयोग में लाये जाने वाला नारा, ‘राजा नहीं फ़क़ीर है, जनता की तकदीर है’ ने वि .पी सिंह की छवि राजासाहब से आम आदमी करके प्रस्थापित की. बोफोर्स घोटाले के समय , ‘सेना खून बहती है, सरकार कमीशन खाती है’ इसका पुरज़ोर इस्तेमाल हुआ.बसपा ने जब दलित राजनीती को उच्च वर्नियों के विरोध में प्रखर करना चाहा तब,‘तिलक तराजू और तलवार , इनकोमारोजूते चार’ का पहेले प्रचालन किया. जबकि चुनाव में जातीय समीकरण को ध्यान में रखते हुए, ‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा, विष्णु, महेश है’ इस नारे को सर्वव्यापी बहुजन हिताय ,बहुजन सुखाए के रूप में आगे किया.यह नारा ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी काफी लोकप्रिय है। कुछ क्षेत्रों में इसके सवर्ण प्रत्याशियों ने पार्टी के परम्परागत वोटों के साथ ही अपनी बिरादरी के वोट बटोरने के लिए किसी और माध्यम के बजाय इस नारे का सहारा लिया ‘पत्थर रख लो छाती पर, मुहर लगेगी हाथी पर.’ जो काफी चर्चित रहा।बदलते दौर में बहुजन समाज पार्टी ने भी अपने नारों में बदलाव किया है। बसपा में नई रोशनी आने दो, बहनजी को आने दो, बेटियों को मुस्कुराने दो, बहनजी को आने दो का नारा बुलंद किया.

बिहार में नारों की हर चुनाव में अच्छी खासी फसल होती रही है। जनता दल युनाइटेड का नारा था – बोल रहा है टी वी अखबार, सबसे आगे नीतीश कुमार, बढ़ता बिहार, नीतीश कुमार और पांच साल बनाम 55 सालजैसे नारों से लोगों को आकर्षित करने की कोशिश की तो सहयोगी दल भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने मतदाताओं को आकर्षित करने के नारा लगाया अपना वोट विकास को, बढ़ता बिहार, बनता बिहार, पांच साल, बिहार खुशहाल , जैसे नारों से लोगों को रिझाने में जुटी।इस बार बिहार विधान सभा में ‘ घर घर दस्तक’ इस रचना ने नितीश कुमार के शीश पर जीत का ताज रख दिया. बिहारी की राजनीती में लालू प्रसाद यादव ने अपनी पैंठ कुछ इस तरह जमाई है की, ‘जब तक रहेगा समोसे में आलू, बिहार में रहेगा लालू’ ये शाश्वत सत्य सा प्रतीत होता है.

राम मंदिर आंदोलन के दौरान के कई नारों ने जनता को बहुत आंदोलित किया जैसे, सौगंध राम की खाते हैं हम मंदिर वहीं बनाएंगे, और बाबरी ध्वंस के बाद – ये तो पहली झांकी है, काशी मथुरा बाकी है (हालांकि ये चुनावी नारा नहीं था) औरजो हिन्दू हित की बात करेंगा , वही देश पे राज करेगा(१९८९- १९९२)का नारा दिया था।कुछ नारे ऐसे निकल आते हैं, जो कई साल तक लोगों की जुबान पर चढे रह जाते हैं। भाजपा के पूर्व अवतार जनसंघ ने भी राजनीति में कुछ अच्छे नारों का योगदान दिया है। इनमें से एक प्रमुख नारा था – हर हाथ को काम, हर खेत को पानी, हर घर में दीपक, जनसंघ की निशानी. अटल जी को प्रधानमंत्री के तौर पर पेश करने के साथ ही भाजपा ने इस नारे को अपने पक्ष में खूब भुनाया अबकी बारी, अटल बिहारी. केंद्र में भाजपा की सरकार गई तो फिर भाजपा ने नारा दिया- जो उत्तर भारत में काफी लोकप्रिय रहा. लेकिन भाजपा का सबसे फ्लाप नारा रहा – इंडिया शाइंनिंग ……………इस नारे ने एनडीए की चमक उतार दी थी. हिन्दी में इसका अनुवाद किया गया था भारत उदय लेकिन इस नारे की वजह से भाजपा अस्त हो गई थी। स्लमडॉग… के गाने जय हो का पट्टा कांग्रेस को मिल गया था, जो बीजेपी ने उसकी पैरोडी करते हुए फिर भी जय हो और भय हो जैसे नारे उतारे थे। भाजपा ने अस्तित्व में आने के बाद कई चुनावी नारे दिए,जिनमें लाल गुलामी छोड़कर बोलो बंदेमातरम तथा ‘सबको परखा बार-बार हमको परखो एक बार’जैसे नारे शामिल हैं। इससे पहले, जनसंघ की ओर से आपातकाल के बाद अटल बोला इंदिरा का शासन डोला जैसे नारे लगाए गए।

‘अटल, अडवाणी और मुरली मनोहर है भाजपा की धरोहर’ इस नारें ने भाजपा के आधारस्थंबो को जनमानस में लोकप्रिय किया.१९९८-१९९९ लोकसभा के चुनाव में, ‘बारीबारी सबकी बारी- अबकी बारी अटल बिहारी’ का नारा दिया। पिछले लोकसभा के चुनाव में ‘अबकी बार मोदी सरकार’, ‘ अच्छे दिन आयेंगे’, सबका साथ – सबका विकास के नारे के दम पर वर्ष २०१४ में केंद्र में सरकार बनाई। वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा लाएंगे, परिवर्तन खिलाएंगे और उत्तर प्रदेश की पारिवारिक राजनीती पर तंज कसता हुआ , ‘बाप-बेटे के ड्रामे हजार, नहीं चाहिए ऐसी सरकार’ का नारा लाई है।हवाओं का रुख भांपते हुए सपा ने कांग्रेस से गटबंधन कर नए समीकरण प्रस्थापित किये, जिसका असर बदले हुए नारों में स्पष्ट नज़र आता है. इस बार के विधानसभा चुनाव पर समाजवादी पार्टी दो फाड़ नजर आ रही है. वर्ष २००७ में आया नारा में यूपी है दम, क्योंकि यहां जुर्म है कम बदल चुका है. अब अखिलेश गुट की ओर से ये जवानी भी कुर्बान, अखिलेश भैय्या तेरे नाम का नारा जोर-शोर से लगाया जा रहा है। वहीं अखिलेश की पत्नी डिपंल का नारा भी सपा में बहुत जोर शोर से गूंज रहा है, जीत की चाभी -डिपंल भाभी,गूंज रहा विकास का पहिया, अखिलेश भैय्या है। जबकि मुलायम ¨सह के गुट की ओर से जिसने कभी झुकना नहीं सीख, उसका नाम मुलायम है का नारा दिया जा रहा है।

भारतीय राजनीति के नाराकोष में बसपा के भड़काऊ नारे अपना अलग स्थान रखते हैं। ठाकुर, ब्राह्मण, बनिया चोर बाकी सारे डीएस फोर, बनिया माफ, ठाकुर हाफ और ब्राह्मण साफ, जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी ने जातीय चेतना फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। बदलते दौर में बहुजन समाज पार्टी ने भी अपने नारों में बदलाव किया है। बसपा में नई रोशनी आने दो, बहनजी को आने दो, बेटियों को मुस्कुराने दो, बहनजी को आने दो का नारा बुलंद किया जा रहा है।

राजनीती के सौरमंडल में , नारे टिमटिमाते तारों की भूमिका निभाते है, कुछध्रुव की तरह दिशा दिखाते है तो कुछ दशा और ग्रह बदलने की ताक़त रखते है. नारें चुनावी ज़मीन पे लगाये जाने वाले तारे ही सही, पर यही सितारों को जन्म देकर , आसमां कीबुलंदियोंतक पहुचने में कारगर साबित होते है. अर्श से फर्श तक लाने के महशक्ति भी इन्ही नारों में छिपी होती है. अत: येकहने कोई अतिश्योक्तिनहीं होगा की राजनीती के धर्म में . ‘ नारें ही नारायण है’.

 

—डॉ. विक्रमसिंह पचलोरे

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