नागपुर : दान देने वाला तीन लोक का राजा होता हैं यह उदबोधन श्रुत केवली वैज्ञानिक धर्माचार्य कनकनंदीजी गुरुदेव ने विश्व शांतिअमृत ऋषभोत्सव के अंतर्गत श्री. धर्मराजश्री तपोभूमि दिगंबर जैन ट्रस्ट और धर्मतीर्थ विकास समिति द्वारा आयोजित ऑनलाइन धर्मसभा में दिया.
गुरुदेव ने धर्मसभा में कहा दान से शरीर, मन, आत्मा स्वस्थ होते हैं. दान देना, परोपकार करना, सेवा करना, भक्ति करना, पूजा करना जढात्मक क्रिया नहीं हैं. इससे शरीर में हार्मोन्स बढ़ता हैं उससे रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती हैं, उससे मानसिक, भावात्मक क्रियाएं होती हैं, उसका जीवन सुखमय होता हैं. विदेश के लोग अरबों खरबों रुपिया दान करते हैं. संपत्ति के 99 प्रतिशत दान करते हैं. विदेश में जैन धर्म के सिद्धांत, कर्म सिद्धांत, अध्यात्म सिद्धांत नहीं जानते हैं। विदेश के लोग प्रायः करके प्रयोग किया है। धर्म का, दान का मस्तिष्क के साथ परिवर्तन होता हैं. उसमें क्या क्रिया, प्रतिक्रिया होती हैं यह उन लोगों ने अनुभव किया. विदेश के लोगों ने मनोविज्ञान, पर्यावरण का परिचय अरब खरब डॉलर खर्च कर के किया. धर्म, पूजा, दान, सेवा आदि व्यर्थ नहीं हैं, बुरे नहीं हैं. यह तन, मन, आत्मा को स्वस्थ बनाने के लिए और जीवन को स्वस्थमय बनाना हैं. सामान्य लोग सोचते हैं दान हमारा सामाजिक उत्तरदायित्व हैं, रोगी पशु, पक्षी, दरिद्र की सेवा करनी चाहिए उससे बहुत बड़ा लाभ होता हैं. उसमें दया भक्ति हैं, करूणा भक्ति कहते हैं. जो धर्म करते हैं उसका फल अरिहंत पद है। जो सेवा करते हैं, दान करते हैं,उन्हें उसका महान फल प्राप्त होता है।. सामान्य लोगों की भ्रांत धारणा हैं अधिकांश रूढ़िवादी दान करना सामाजिक प्रतिष्ठा, ख्याति, प्राप्त करना चाहते हैं।लेकिन ऐसे दान से पापानुबंधी पुण्य होता हैं। इसके विपरीत जो श्रद्धा से, पवित्र भाव से दान करते हैं उसके फल से तीन भुवन के राजा बनते हैं । सामान्य लोग इतना ही जानते हैं दान देने से धन आता हैं, परंतु यह उसका बहुत छोटा फल हैं, बहुत बड़ा नहीं हैं. जैसे आम फलदार वृक्ष है और छाया उसका आनुषंगिक फल है. दान का उत्कृष्ट फल वह तीन लोक का राजा बनता हैं,अरिहंत बनता हैं, सिद्ध बनता हैं. पुण्य का फल अरिहंत बनना हैं । आहार दान करने से, अनुमोदना करने से मिथ्या दृष्टि भी आगे जाकर चक्रवर्ती बन जाते हैं. यह सब आनुषंगिक हैं. जो दान करते हैं वह सोचते हैं मैं दान करुंगा तो मेरा नाम होगा जो ऐसे सोचते हैं उससे दान का फल क्षीण होता हैं । दान करने से जीव को अनंत वैभव होता हैं. प्रमुख फल मिलने से पहले सांसारिक वैभव का फल प्राप्त करना हैं ।जो आहार दान देकर शेष गुरूप्रसाद को भक्तिपूर्वक ग्रहण करता हैं संसार सार के सुख प्राप्त करता हैं,सर्वोच्च वैभव को प्राप्त करता हैं।
हम गुरू को सम्मान दें ,गुरू हमें ऊँची उड़ान देंगे -आचार्य गुप्तिनंदीजी
इससे पूर्व आचार्यश्री गुप्तिनंदीजी गुरुदेव ने अपने गुरुदेव के सम्मान में कविता प्रस्तुत करते हुए कहा – जिनके प्रति मन में सम्मान होता है, जिनकी डाँट में एक अद्भुत ज्ञान होता है।जन्म देता है जो कई महान शख्सियतों को. वो गुरू सबसे महान होता है।जीवन अपना उज्ज्वल कर, देश को, शिष्य को उन्नति की ओर बढ़ाते हैं।रच देते हैं जो इतिहास नये,ऐसे गुरू समाज के भाग्य विधाता कहलाते हैं। धर्मसभा का संचालन स्वरकोकिला गणिनी आर्यिका आस्थाश्री माताजी ने किया. सोमवार 24 मई को सुबह 7:20 बजे शांतिधारा, सुबह 9 बजे आचार्यश्री विशदसागरजी गुरुदेव का उदबोधन, शाम 7:30 बजे से परमानंद यात्रा, चालीसा, भक्तामर पाठ, महाशांतिधारा का उच्चारण एवं रहस्योद्घाटन, 48 ऋद्धि-विद्या-सिद्धि मंत्रानुष्ठान, महामृत्युंजय जाप, आरती होगी.