एक विश्वास जो अब मात्र आस में बदल गया है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल का दो साल पूरा होने जा रहा है. किसी सरकार के कार्य के आकलन के लिए यह पर्याप्त समय माना जाता है, खासकर एक ऐसे दौर में जब मजबूत मीडिया हर दिन जन-संवाद के जरिए जनमत को प्रभावित करने का काम पूरी शिद्दत से कर रहा हो और जब सोशल मीडिया के जरिए कार्यकर्ताओं की फौज ट्विटर पर दिन-रात एक-दूसरे प्रतिस्पर्धी दलों की लानत-मलानत कर रही हो.
जनमत बनाने में न केवल वर्तमान सरकार के कामों की बड़ी भूमिका होती है बल्कि जनता यह भी देखती है कि पिछली सरकार का काम-काज कैसा रहा था और ‘अगर मोदी नहीं तो दूसरा या तीसरा विकल्प क्या’.
70 साल से डूबती नाव में अगर जनता को कोई मोदी के रूप में तिनका भी दिखाई दे जाए तो वह उसे ईश्वर की नियामत समझने लगता है. एक आस जगती है और वह तब तक टिमटिमाती रहती है जब तक या तो सांस न रु के या दीया ओझल न हो जाए. मोदी को इस दिए को टिमटिमाते रहने की कला आती है तभी तो पिछले 24 महीनों में 40 कार्यक्रमों, स्कीमों और परियोजनाओं की घोषणा की जा चुकी है. यानी हर 18 दिन में एक. इनमें कुछ पुरानी हैं और कुछ नई, पर इनके नाम फिर से रखना और उन्हें अच्छे शब्दों से नवाजना ‘आस की लौ’ में तेल की मानिंद है.
मोदी से उम्मीद बहुत थी, लेकिन जब यथार्थ की कसौटी पर परखा जा रहा है तो दूर कहीं ना-उम्मीदी भी दिखाई देने लगी है. यूरिया पर नीम की परत चढ़ाना , किसानों के लिए मृदा स्वास्थ्य कार्ड पर बल देना, सीधे डिलिवरी सिद्धांत के तहत बैंक खाते खुलवाना, किसान फसल बीमा योजना में पिछली योजनाओं की कमियों को काफी हद तक दूर करना यह साफ परिलक्षित करता है कि एक नेता है जो समझता भी है और सोचता भी है.
विश्वास यह है कि दमदार है लिहाजा जो सोचता है वह अमल में भी ला सकता है. पर अचानक जब कोई नीम-समझ का मंत्री हर दूसरे दिन मुसलमानों को पाकिस्तान भेजने लगता है या पार्टी के ‘अति-उत्साही’ प्रवक्ता गुरूर में आकर ‘जो भारत माता की जय नहीं बोलता वह देशद्रोही है’ की बांग देने लगता है तब लगता है कि मोदी में ‘टिमटिमाता दीया’ देखना हमारा आभासित सत्य है. राज्यों के प्रति एक तरफ ‘को-आपरेटिव फेडरलिज्म’ (सहकारी संघवाद) और दूसरी तरफ घटिया सोच वाले पार्टी के कुछ नेताओं के कहने पर उत्तराखंड और अरुणाचल में अनैतिक ढंग से राष्ट्रपति शासन लगाना. कैसे सफल होंगे केंद्र के अधिकांश कार्यक्रम जिनमें राज्य की सरकारों और उनके अभिकरणों की बड़ी भूमिका है. कार्यक्रम सफल होगा तो डंका भाजपा के लोग बजाएंगे राज्य के चुनाव में जीत के लिए और हार होगी तो ठीकरा राज्य की सरकारों पर फोडेंगे पिछले दो साल में मोदी की सदाशयता पर उनकी पार्टी के लोगों के कारण ही प्रश्नचिह्न् लग रहा है.
केवल जनधन योजना और स्वच्छ भारत मिशन को छोड. कर जनता ने अन्य दो दर्जन से ज्यादा योजनाओं के अमल के प्रति अपनी नाराजगी जताई है. और ये वे योजनाएं हैं जिनसे जन-कल्याण का सीधा संबंध है. मनरेगा एक चुनौती है उसी तरह जिस तरह प्रधानमंत्री रोजगार योजना. पेट में अनाज हो, बेटे की नौकरी की उम्मीद हो तो गरीब जनता उन्माद में मोदी को फिर शासन में ला सकती है पर शायद दो सालों में उन्हें नारे ही मिले.
नैराश्य भाव इसलिए भी है क्योंकि वे मंत्री जिन्हें मनरेगा को सफल बनाने के लिए दिन-रात एक करना था वे ‘भारत माता की जय’ न बोलने वालों को पाकिस्तान भेजने में लगे हैं. अगर मोदी ने पिछले हर 18 दिनों में एक कार्यक्र म की घोषणा करके जनता की आस की लौ न बुझाने का प्रयास किया तो हिंदू धर्म के ठेकेदारों ने जिन्होंने मोदी को जिताने के लिए हवा बनाई, हर हफ्ते देश का वातावरण विषाक्त किया. मोदी चुपचाप बैठे रहे. शायद उन्हें भी डर है कि अगर अनाज पेट में नहीं गया और युवाओं को रोजगार नहीं मिला तो अंत में यही सब तो काम आएगा. मोदी से उम्मीद बहुत थी, लेकिन जब यथार्थ की कसौटी पर परखा जा रहा है तो ना-उम्मीदी भी दिखाई देने लगी है.