Published On : Mon, Oct 7th, 2019

पुणे में भीख मांगते मिला सावरकर का नाती, लोगों को नहीं हुआ विश्वास

पुणे. क्या आप यकीन करेंगे कि भारत के महान क्रांतिकारी और हिंदू महासभा के संस्थापक विनायक दामोदर सावरकर के नाती को लोगों ने पुणे के मंदिर के सामने भीख मांगते और फुटपाथ पर जीवन गुजारते हुए देखा. लोग उसे जो पैसा दे जाते थे, उसका गुजारा उसी पर चला करता था.

ये खबर स्तब्ध करने वाली जरूर है लेकिन कुछ साल पहले जब पुणे के लोगों को पता चला कि सावरकर का उच्च शिक्षित नाती इस हाल में है तो लोग वाकई हैरान रह गए. तब कई अखबारों में इस नाती की कहानी प्रकाशित हुई.

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वर्ष 2007 में “हिंदुस्तान टाइम्स”, “इंडियन एक्सप्रेस” और “टाइम्स ऑफ इंडिया” ने प्रफुल्ल चिपलुनकर नाम के इस नाती की दिल को झकझोर देने वाली खबर प्रकाशित की थी.

दरअसल पुणे के सरासबाग गणपति मंदिर के पास दो वेंडर्स ने एक ऐसा भिखारी देखा, जो अंग्रेजी के अखबार पढ़ रहा था. वो वहीं फुटपाथ पर रहता था. लोग उसे जो पैसे दे जाते थे, उससे उसका गुजारा चला करता था. इन वेंडर्स ने जब एक सामाजिक संस्था को इसकी जानकारी दी तो पता चला कि ये शख्स कोई और नहीं बल्कि सावरकर की बेटी प्रतिभा का बेटा है.

प्रफुल्ल की जिंदगी के शुरुआती साल सावरकर के साथ ही गुजरे थे. वो बचपन से पढ़ने में तेज थे. 1971 में उनका सेलेक्शन आईआईटी दिल्ली में हुआ. वहां से उन्होंने केमिकल इंजीनियरिंग में डिग्री ली. कुछ साल बाद थाईलैंड चले गए. वहीं उन्होंने एक थाई महिला श्रीपॉर्न से शादी रचा ली. उनके एक बेटा हुआ. कुछ सालों बाद वो भारत लौट आए. लेकिन बेटा वहीं रह गया.

रिश्तेदारों से कट गए थे
भारत लौटने के बाद प्रफुल्ल अपने रिश्तेदारों से आमतौर पर इसलिए कट गए, क्योंकि उनकी शादी को ज्यादा पसंद नहीं किया गया था. इसी दौरान वो हिमाचल में इंडो-जर्मन प्रोजेक्ट पर काम करने गए. जहां एक हादसे में वो बुरी तरह जल गए. छह साल इलाज के बाद वो धन और शरीर दोनों से बुरी तरह टूट गए. लिहाजा उन्होंने पत्नी और बेटे को थाईलैंड जाने को कहा, जिससे आर्थिक स्थिति सुधरे.

बेटे और पत्नी के एक्सीडेंट ने तोड़ दिया था
अपने पुश्तैनी घर पुणे में लौटकर प्रफुल्ल ने कंसल्टेंसी का काम शुरू किया, जो ज्यादा चल नहीं पायी. वर्ष 2000 में जब थाईलैंड में कार एक्सीडेंट में उन्हें बेटे और पत्नी के निधन की खबर मिली तो वो बिखर गए. अवसाद ने उन्हें फटेहाल हालत में पहुंचा दिया. उन्होंने पुणे की एक सोसायटी में वॉचमैन का काम किया. फिर कुछ और छोटे-मोटे काम से गुजारा चलाने की कोशिश की. फिर उन्होंने पुणे के मंदिर के सामने समय गुजारना शुरू कर दिया. वो वहीं फुटपाथ पर रहने लगे. वो करीब दो साल तक भीख मांगने की स्थिति में रहे.

पहचाने जाने के बाद प्रफुल्ल ने टाइम्स ऑफ इंडिया को बताया कि पुणे में हमारे बहुत रिश्तेदार हैं लेकिन मैं सबसे कट चुका था. पत्नी और बेटे के निधन के बाद ना तो मेरे अंदर लाइफ का गोल था और पैसा कमाने की इच्छा भी खत्म हो गई.

उन्होंने अपने नाना वीर सावरकर के बारे में कहा, तात्या मुझे पढ़ाते भी थे और अभिनव भारत के बारे में बताया करते थे. मैं 16 साल उनके साथ रहा. अब मैं फिर अभिनव भारत को जिंदा करना चाहता हूं.

सावरकर के परिवार के अन्य लोग
वीर सावरकर का जब 1966 में मुंबई में निधन हुआ तो उनके परिवार में एक बेटा और एक बेटी थे. एक बेटा और एक बेटी का निधन बचपन में ही हो गया था. उनके बेटे विश्वास ने लंबी जिंदगी पाई.
विश्वास का निधन 2010 में मुंबई में अपने पैतृक मकान में हुआ था. उस समय वो 83 साल के थे. उनका निधन मुंबई के उसी सावरकर सदन में हुआ, जो सावरकर परिवार का पुश्तैनी मकान था.

विश्वास की लोप्रोफाइल जिंदगी
विश्वास लोप्रोफाइल जिंदगी जीने में यकीन रखते थे. उन्होंने वालचंद ग्रुप में नौकरी भी की थी लेकिन बाद में उन्होंने अपना जीवन हिंदू महासभा और किताबें लिखने में लगा दिया. उन्होंने चार किताबें लिखीं. साथ ही उनके लेख विभिन्न अखबारों और पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे.
उन्होंने लगातार अपने पिता के कामों का समर्थन किया और उन्हें देश का महान क्रांतिकारी बताया. 2002 में संसद में सावरकर की प्रतिमा लगाने पर हुए विवाद में उन्होंने पिता का जमकर बचाव किया. गौरतलब है कि वीर सावरकर को गांधी की हत्या में पुलिस ने चार्जशीट में रखा था, लेकिन बाद में सबूतों के नहीं होने से उन्हें अदालत ने बरी कर दिया.

बेटे का परिवार
विश्वास की दो बेटियां हैं, उसमें एक थाणे और दूसरी हैदराबाद में रहती हैं. दोनों विवाहित हैं और लोप्रोफाइल जिंदगी गुजारती हैं.

सावरकर की पत्नी
सावरकर की पत्नी माई या यमुनाबाई विनायक का निधन 1962 में हुआ था. उनके पिता भाऊराव चिपुलनकर ठाणे के पास जावहर प्रिंसले स्टेट में दीवान थे. जब सावरकर लंदन पढ़ने गए, तो उनका खर्च वास्तव में उनके ससुर भाऊराव ने ही किया था. भाऊ ना केवल जिंदगी भर अपने दामाद के साथ खड़े रहे बल्कि उनके विचारों का समर्थन भी करते रहे. उन्होंने सावरकर के कई सामाजिक कार्यक्रमों में भी उन्हें सहयोग किया था.

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