नागपुर: हाल ही में सरकारी स्तर पर सामने आई जानकारी से पता चला है कि सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि दर 6.1 फीसदी रह गई है। अलबत्ता लंबे समय से संकटग्रस्त रहे कृषि क्षेत्र में बढ़त दर्ज की गई है। तीसरी तिमाही में कृषि विकास दर बढ़कर 5.2 प्रतिषत हो गई है। तय है, इसके लिए अच्छे मानसून के साथ-साथ किसानों की मेहनत भी रंग लाई है। बावजूद देश के किसान और किसानी से जुड़े मजदूर किस हाल में हैं, इसकी तस्वीर महाराष्ट्र सह अन्य राज्यों में चले किसान आंदोलनों से सामने आई है। आंदोलन की शुरुआत महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के कोपरगांव से हुई। यहां संपूर्ण कर्ज माफी के लिए 200 किसान एकजुट हुए और अपना आक्रोष जताते हुए हिंसा पर भी उतर आए। नतीजतन किसान अषोक मोरे नाम के एक किसान की मौत भी हो गई। किसानों ने जहां दूध और फसलों से भरे वाहनों में आग लगा दी, वहीं लाखों लीटर दूध सड़कों पर बहा दिया। महाराष्ट्र में किसानों की प्रमुख मांग शत -प्रतिषत कर्ज माफी है। इस आंदोलन का नेतृत्व महाराष्ट्र में किसान क्रांति जन आंदोलन ने संभाला हुआ है।
हालांकि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस ने तुरंत बैठक बुलाकर अक्टूबर 2017 तक समस्या के निराकरण का भरोसा दिलाकर किसानों के गुस्से को काबू में ले लिया है. किसान ऋृणमाफी के सिलसिले में केंद्र और प्रदेश की सरकारों का विरोधाभासी पहलू यह है कि औद्योगिक घरानों के कर्ज तो लगातार बट्टे खाते में डाले जा रहे हैं, जबकि किसान कर्जमाफी की मांग पर सरकार और कथित अर्थषास्त्री अर्थव्यवस्था बद्हाल हो जाने का रोना रोने लगते हैं। ऐसे में उत्तर प्रदेश की आदित्यनाथ योगी सरकार ने किसान कर्जमाफी का निर्णय लेकर एक मिसाल पेष की है।
देश का अन्नदाता लगातार संकट में है। नतीजतन हर साल विभिन्न कारणों से 8 से लेकर 10 हजार किसान आत्महत्या कर रहे हैं। इसकी प्रमुख वजह बैंक और साहूकारों से लिया कर्ज है। इस परिप्रेक्ष्य में कुछ समय पहले गुजरात में किसानों पर मंडरा रहे संकट और उनकी आत्महत्याओं को लेकर स्वयं सेवी संगठन ‘सिटीजन्स रिसोर्स एंड एक्शन एंड इनिसिएटिव ‘ ने सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दाखिल की थी। इस पर सुनवाई करते हुए न्यायालय ने कहा कि ‘यह बेहद गंभीर मसला है।
लिहाजा किसानों की आत्महत्याओं के परिप्रेक्ष्य में राज्यों द्वारा उठाए जाने वाले प्रस्तावित प्रावधानों की जानकारी से अदालत को अवगत कराएं।‘ इसे अदालत का संवेदनषील रुख कहा जा सकता है, क्योंकि अदालत ने एक प्रदेश की समस्या को समूचे देश के किसानों की त्रासदी के रूप में देखा और विचारणीय पहलू बना दिया। यदि ऐसी ही संवेदना का परिचय केंद्र और प्रदेश सरकारें दे रही होती तो शायद किसानों को दुर्दशा का शिकार होकर खुदकुशी जैसा आत्मघाती कदम उठाते रहने को मजबूर नहीं होना पडता।
देश में कर्ज में डूबे छोटी जोत के किसान सबसे ज्यादा आत्महत्या करते है। हालांकि कर्जमाफी का लाभ उन्हीं किसानों को मिलता है, जिन्होंने सरकारी और सहकारी बैंकों से कर्ज लिया होता है। निजी ऋणदाताओं से कर्ज लेने वाले किसान इस लाभ से वंचित रह जाते है।
भाजपा ने लोकसभा चुनाव के घोशणा-पत्र में स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशे लागू करने और किसानों को उपज का लागत से डेढ़ गुना दाम दिलाने का वादा किया था। लेकिन नरेंद्र मोदी सरकार के तीन साल बीत जाने के बावजूद इस दिषा में कोई उल्लेखनीय पहल नहीं हुई। चीनी मिलों पर गन्ने का बकाया इस नजरिए से जाना-पहचाना उदाहरण है। साफ है ये उपाय कृषि और किसान के संकट के अहम् कारण तो है ही देश की अर्थव्यवस्था के लिए भी षुभ संकेत नहीं है। यही वजह है कि खेती घाटे का धंधा बनी हुई है। मौसम की मार या अन्य किसी कारण से फसल चैपट होती है तो भी किसान को विकट कठिनाइयों से गुजरना पड़ता है। ऐसे में किसान अपने को ठगा हुआ महसूस न करे तो क्या करे?
देश में 70 फीसदी खेती-किसानी और उससे जुड़े काम-काज से आजीविका आर्जित करती है। यही वह आबादी है, जो संकटग्रस्त रहते हुए भी देश की 1 अरब 25 करोड़ आबादी को भोजन उपलब्ध कराती है। साथ ही शक्कर, चावल, कपास और अनेक किस्म के आमों को निर्यात के लिए व्यापारियों को उपलब्ध कराकर अरबों रुपए की विदेषी मुद्रा आर्जित करने का साधन बनती है। बावजूद जब भी किसान के ऋण माफी की बात आती है तो कापोर्रेट घरानों के पक्षधर दलाल प्रवृत्ति के अर्थशास्त्री दलील देते है कि किसान कर्जमाफी से देश का वित्तीय अनुशासन बिगड़ जाएगा।
जबकि चंद बड़े उद्योगपतियों के ऋणमाफी और विभिन्न करों में छूट देने पर यही अर्थशास्त्री मौन रहते हैं। सरकारी कर्मचारियों को छठा और सातवां वेतनमान देने पर भी इनकी चुप्पी हैरानी का सबब बनती है। जबकि ये उपाय आर्थिक असमानता का बड़ा कारण बन रहे हैं। यदि वाकई किसानों की ऋणमाफी अर्थवयव्स्था की बद्हाली का कारण है तो फिर किस बूते पर बैंकों ने पिछले तीन सालों में पूंजीपतियों के 1.14 लाख करोड़ रुपए के कर्जाों को बट्टे खाते में डाल दिया ? पिछले 15 साल के भीतर के आंकड़े बताते है कि पूंजीपतियों के तीन लाख करोड़ रुपए के ऋण बट्टे खाते में डाले गए है। बैंक की तकनीकी भाषा में ये वे कर्ज हैं, जिनकी वसूली की उम्मीद शून्य हो गई है।
हालांकि रा.ज.ग. सरकार ने किसान हित में फसल बीमा योजना में 13 हजार 240 करोड़ रुपए, दूध प्रसंस्करण निधी में 8 हजार करोड़ और सिंचाई एवं मृदा प्रयोगशालाओं के लिए 5000 करोड़ रुपए दिए हैं। साथ ही जिन किसानों ने सहकारी बैंकों से कर्ज लिया है, उन्हें 60 दिनों की बैंक ब्याज में छूट भी दी गई है। लेकिन ये उपाय किसानों के आसूं पोंछने जैसे है। क्योंकि ये सभी उपाय अप्रत्यक्ष लाभ से जुड़े है। यदि सरकारें ऐसा करती है तो उनकी किसान व मजदूर के प्रति संवेदना तो सामने आएगी ही, किसान देश की अर्थव्यवस्था में भी उमंग व उत्साह से भागीदारी करेंगे ?